भाषाविज्ञान की दृष्टि से हिन्दी भाषा की प्रकृति विश्लेषणात्मक है, संस्कृत की तरह संश्लेषणात्मक नहीं। अतएव, हिन्दी में सामासिक पदों या शब्दों का अधिक प्रयोग नहीं होता। संस्कृत में योजक चिह्न (Hyphen) का प्रयोग नहीं होता। उदाहरणार्थ—
“नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्ग सीतासमारोपितवामभागम्।
पाणौ महासायकचारुचापं नमामि रामं रघुवंशनाथम्॥”
हिन्दी में इसका अनुवाद इस प्रकार होगा— जिनके शरीर के कोमल अंग नीले कमल के समान श्याम वर्ण के हैं, जिनके बाम भाग में श्री सीता जी सुशोभित हैं, जिनके दोनों हाथों में श्रेष्ठ बाण और कान्तियुक्त धनुष है तथा जो रघुवंश-शिरोमणि हैं, मैं ऐसे राम की वन्दना करता हूँ।
नीलाम्बुजश्यामलकोमलाङ्ग = नील + अम्बुज + श्यामल + कोमल + अङ्ग। हिन्दी में इसका अर्थ होगा— जिनके शरीर के कोमल अंग नीले कमल के समान श्याम वर्ण के हैं। अतः, संस्कृत और हिन्दी का अन्तर स्पष्ट है।
प्रश्न उठता है कि योजक चिह्न लगाने की आवश्यकता ही क्या है। ऐसा करना क्यों आवश्यक है?
- यह वाक्य में प्रयुक्त शब्द और उनके अर्थ को चमत्कृत कर देता है।
- यह किसी शब्द के उच्चारण अथवा वर्तनी को भी स्पष्ट करता है अर्थात् योजक चिह्न अर्थ और उच्चारण से सम्बद्ध अनेक प्रकार के भ्रम होने से बचाता है। उदाहरणार्थ—
- ‘उपमाता’ और ‘उप-माता’
- ‘उपमाता’ का अर्थ ‘उपमा देनेवाला’
- ‘उप-माता’ का अर्थ ‘सौतेली माँ’
- ‘भूतत्त्व’ और ‘भू-तत्त्व’
- ‘भूतत्त्व’ का अर्थ ‘भूत’ शब्द का भाववाचक संज्ञारूप
- ‘भू-तत्त्व’ का अर्थ भूमि या पृथ्वी से सम्बद्ध तत्त्व
- ‘कुशासन’ और ‘कु-शासन’
- ‘कुशासन’ का अर्थ ‘कुश से बना हुआ आसन’
- ‘कु-शासन’ का अर्थ ‘बुरा शासन’ भी होगा
- ‘उपमाता’ और ‘उप-माता’
उपर्युक्त उदाहरणों से स्पष्ट है कि योजक चिह्न की अपनी उपयोगिता है और शब्दों के निर्माण में इसका बड़ा महत्त्व है।
योजक चिह्न (Hyphen) सामान्यतः दो शब्दों को जोड़ता है और दोनों को मिलाकर एक समस्त पद (सामासिक पद) बनाता है, लेकिन दोनों का स्वतन्त्र अस्तित्व बना रहता है अर्थात् “जिन पदों के दोनों खण्ड प्रधान हों और जिनमें ‘और’ अनुक्त या लुप्त हो, वहाँ योजक चिह्न लगाया जाता है।” उदाहरणार्थ—
- माता-पिता = माता और पिता
- लड़का-लड़की = लड़का और लड़की
- धर्म-अधर्म = धर्म और अधर्म
- पाप-पुण्य = पाप और पुण्य
- घर-द्वार = घर और द्वार
- दाल-रोटी = दाल और रोटी
- दही-बड़ा = दही और बड़ा
- सीता-राम = सीता और राम
- फल-फूल = फल और फूल
- ज्ञान-विज्ञान = ज्ञान और विज्ञान
दो विपरीतार्थक शब्दों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है। उदाहरणार्थ—
- ऊपर-नीचे, लेन-देन, माता-पिता, रात-दिन, आकाश-पाताल, पाप-पुण्य, स्त्री-पुरुष, भाई-बहन, देर-सबेर, आगा-पीछा, बेटा-बेटी, ऊँच-नीच, गरीब-अमीर, शुभ-अशुभ, लघु-गुरु, विरह-मिलन, स्वर्ग-नरक, जय-पराजय, देश-विदेश, झूठ-सच, जन्म-मरण, जड़-चेतन, योगी-भोगी, हानि-लाभ, मानव-दानव इत्यादि।
द्वन्द्वसमास में कभी-कभी ऐसे पदों का भी प्रयोग होता है, जिनके अर्थ प्रायः समान होते हैं। ये पद बोलचाल में प्रयुक्त होते हैं। ऐसे पदों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है। ये ‘एकार्थबोधक सहचर शब्द‘ कहलाते हैं। उदाहरणार्थ—
- मान-मर्यादा, हाट-बाजार, दीन-दुखी, बल-वीर्य, मणि-माणिक्य, सेठ-साहूकार, सड़ा-गला, भूल-चूक, रुपया-पैसा, देव-पितर, समझ-बूझ, सम्बन्ध-सम्पर्क, भोग-विलास, हिसाब-किताब, भूत-प्रेत, चमक-दमक, जी-जान, साग-पात, बाल-बच्चा, मार-पीट, कौल-करार, शोर-गुल, धूम-धाम, हँसी-खुशी, चाल-चलन, कपड़ा-लत्ता, बरतन-बासन, जीव-जन्तु, कूड़ा-कचरा, नौकर-चाकर, सजा-धजा, नपा-तुला इत्यादि।
जब दो विशेषणपदों का संज्ञा के अर्थ में प्रयोग हो, वहाँ योजक चिह्न लगता है; जैसे—
- लूला-लँगड़ा, भूखा-प्यासा, अन्धा-बहरा।
जब दो शब्दों में एक सार्थक और दूसरा निरर्थक हो, तब वहाँ भी योजक चिह्न लगाया जाता है; जैसे—
- परमात्मा-अरमात्मा, उलटा-पुलटा, अनाप-शनाप, रोटी-वोटी, खाना-वाना, पानी-वानी, चाय-वाय, झूठ-मूठ।
जब दो शुद्ध संयुक्त क्रियाएँ एक साथ प्रयुक्त हों, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगता है; जैसे—
- पढ़ना-लिखना, उठना-बैठना, मिलना-जुलना, मारना-पीटना, खाना-पीना, आना-जाना, करना-धरना, दौड़ना-धूपना, मरना-जीना, कहना-सुनना, समझना-बूझना, उठना-गिरना, रहना-सहना, सोना-जागना।
क्रिया की मूलधातु के साथ आयी प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिह्न का प्रयोग होता है; जैसे—
- उड़ना-उड़ाना, चलना-चलाना, गिरना-गिराना, फैलना-फैलाना, पीना-पिलाना, ओढ़ना-उढ़ाना, सोना-सुलाना, सीखना-सिखाना, लेटना-लिटाना, पढ़ना-पढ़ाना।
दो प्रेरणार्थक क्रियाओं के बीच भी योजक चिह्न लगाया जाता है; जैसे—
- डराना-डरवाना, भिंगाना-भिंगवाना, जिताना-जितवाना, चलाना-चलवाना, कटाना-कटवाना, कराना-करवाना।
जब एक ही संज्ञा दो बार प्रयुक्त हो, तब संज्ञाओं के बीच योजक चिह्न लगता है। इसे ‘द्विरुक्ति’ या ‘पुनरुक्ति’ या ‘युग्म पद’ कहते हैं; जैसे—
- गली-गली, नगर-नगर, द्वार-द्वार, गाँव-गाँव, शहर-शहर, घर-घर, कोना-कोना, चप्पा-चप्पा, कण-कण, बूँद-बूँद, राम-राम, वन-वन, बात-बात, बच्चा-बच्चा, रोम-रोम।
परिमाणवाचक और रीतिवाचक क्रियाविशेषण में प्रयुक्त दो अव्ययों तथा ‘ही’, ‘से’, ‘का’, ‘न’ आदि के बीच योजक चिह्न का व्यवहार होता है; जैसे—
- बहुत-बहुत, थोड़ा-थोड़ा, थोड़ा-बहुत, कम-कम, कम-बेश, धीरे-धीरे, जैसे-तैसे, आप-ही-आप, बाहर-भीतर, आगे-पीछे, यहाँ-वहाँ, अभी-अभी, जहाँ-तहाँ, आप-से-आप, ज्यों-का-त्यों, कुछ-न-कुछ, ऐसा-वैसा, जब-तब, तब-तब, किसी-न-किसी, साथ-साथ।
निश्चित संख्यावाचक विशेषण के जब दो पद एक साथ प्रयुक्त हों, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगता है; जैसे—
- दो-चार, एक-एक, एक-दो, चार-चार, नौ-छह, दस-बारह, दस-बीस, पहला-दूसरा, चौथा-पाँचवाँ, दो-तिहाई, तीन-चौथाई।
अनिश्चित संख्यावाचक विशेषण में जब ‘सा’, ‘से’ आदि जोड़े जायें, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है; जैसे—
- बहुत-सी बातें, कम-से-कम, बहुत-से लोग, बहुत-सा रुपया, अधिक-से-अधिक, थोड़ा-सा काम।
गुणवाचक विशेषण में भी ‘सा’ जोड़कर योजक चिह्न लगाया जाता है; जैसे—
- बड़ा-सा पेड़, बड़े-से-बड़े लोग, ठिंगना-सा आदमी।
संधि रूप पृथक दिखाने के लिए; जैसे—
- द्वि-अक्षर, द्वि-अर्थक।
जब किसी पद का विशेषण नहीं बनता, तब उस पद के साथ ‘सम्बन्धी’ पद जोड़कर दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है; जैसे—
- भाषा-सम्बन्धी चर्चा, पृथ्वी-सम्बन्धी तत्त्व, विद्यालय-सम्बन्धी बातें, सीता-सम्बन्धी वार्ता।
यह तथ्य विशेष रूप से उल्लेखनीय है कि जिन शब्दों के विशेषणपद बन चुके हैं या बन सकते हैं, वैसे शब्दों के साथ ‘सम्बन्धी’ जोड़ना उचित नहीं। उदाहरणार्थ—
- ‘भाषा-सम्बन्धी’ के स्थान पर ‘भाषागत’ या ‘भाषिक’ या ‘भाषाई’ विशेषण लिखा जाना चाहिए।
- ‘पृथ्वी-सम्बन्धी’ के लिए ‘पार्थिव’ विशेषण लिखा जाना चाहिए।
- ‘विद्यालय’ और ‘सीता’ के साथ ‘सम्बन्धी’ का प्रयोग किया जा सकता है, क्योंकि इन दो शब्दों के विशेषणरूप प्रचलित नहीं हैं।
- अतः, सभी प्रकार के शब्दों के साथ ‘सम्बन्धी’ जोड़ना ठीक नहीं।
जब दो शब्दों के बीच सम्बन्धकारक के चिह्न— का, के और की— लुप्त या अनुक्त हों, तब दोनों के बीच योजक चिह्न लगाया जाता है। ऐसे शब्दों को हम सन्धि या समास के नियमों से अनुशासित नहीं कर सकते। इनके दोनों पद स्वतन्त्र होते हैं; जैसे—
- शब्द-सागर, लेखन-कला, शब्द-भेद, सन्त-मत, मानव-जीवन, मानव-शरीर, राम-नाम, रावण-वध, लीला-भूमि, कृष्ण-लीला, विचार-शृंखला, प्रकाश-स्तम्भ।
लिखते समय यदि कोई शब्द पंक्ति के अन्त में पूरा न लिखा जा सके, तो उसके पहले आधे खण्ड को पंक्ति के अन्त में रखकर उसके बाद योजक चिह्न लगाया जाता है। ऐसी हालत में शब्द को ‘शब्दखण्ड’ या ‘सिलेबुल’ या पूरे ‘पद’ पर तोड़ना चाहिए। जिन शब्दों के योग में योजक चिह्न आवश्यक है, उन शब्दों को पंक्ति में तोड़ना हो तो शब्द के प्रथम अंश के बाद योजक चिह्न देकर दूसरी पंक्ति दूसरे अंश के पहले योजक देकर जारी करनी चाहिए; जैसे—
खाने में रोटी और चने का व्यवहार अधिक करें।
सही बोलनेवाला व्यक्ति सदा नपे-तुले शब्दों में बोलता है।
योजक चिह्न का प्रयोग कहाँ नहीं होना चाहिए—
हिन्दी के लेखक योजक चिह्न के प्रयोग में काफी उदारता से काम लेते हैं। ये अब योजक चिह्न को धीरे-धीरे हटाते जा रहे हैं। भारत की स्वतन्त्रता के पहले हिन्दी में निम्नलिखित शब्दों के बीच योजक चिह्न लगता था, किन्तु अब इसे हटा दिया गया है। खासकर पत्र-पत्रिकाओं में ये अधिक देखने को मिलते हैं। ये शब्द इस प्रकार हैं—
- रजतपट, कार्यक्रम, जनरुचि, लोकमत, जनपथ, योगदान, चित्रकला, पटकथा, मध्यवर्ग, निम्नवर्ग, उच्चवर्ग, आकाशवाणी, कामकाज, सूचीपत्र, सीमारेखा, वर्षगाँठ, जन्मदिन, आसपास, अन्धविश्वास, गतिविधि, आत्मविश्वास, आत्मसमर्पण, रक्तदान, पदचिह्न, आत्मनिर्भर, मानपत्र, प्रशंसापत्र, आवेदनपत्र, अभिनन्दनपत्र, परीक्षाफल, हिन्दी परिषद्, हिन्दी संसार, हिन्दी विभाग, राष्ट्रभाषा।
निश्चय ही, यह अँग्रेजी का प्रभाव है। इस प्रभाव के फलस्वरूप आज नगरों, संस्थाओं, दुकानों, समितियों, आयोगों, कल-कारखानों और पत्र-पत्रिकाओं के नाम, बिना योजक चिह्न लगाये, लिखे जा रहे हैं; जैसे—
- सोवियत भूमि, नेहरू पुरस्कार समिति, शान्ति दल, बिहार सहकारी समिति, मगध विश्वविद्यालय, राजेन्द्र नगर, पटेल कॉलेज, प्रसारण मंत्री, संगीत नाटक अकादमी, बिहार विधान परिषद्, नागरी प्रचारिणी सभा, बिहार राष्ट्रभाषा परिषद्, दीक्षान्त समारोह, केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय, पटना सचिवालय, टाटा आयरन कम्पनी, बोकारो स्टील कारपोरेशन, शिक्षा आयोग, कॉलेज पत्रिका, संयुक्त राष्ट्रसंघ, प्रान्तीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन।
इन शब्दों के प्रयोग से यह स्पष्ट है कि हिन्दी पर अँग्रेजी का प्रभाव है। एक हद तक यह ठीक भी है। निस्सन्देह, इन शब्दों की अपनी उपयोगिता है। बात-बात में योजक चिह्न का व्यवहार भाषा को बोझिल बना देगा। इस दिशा में हमारी देवभाषा संस्कृत पहले से सावधान रही। संस्कृत में इसीलिए योजक चिह्न का प्रयोग नहीं के बराबर है। संस्कृत ने सन्धि और समास के नियम बनाकर योजक चिह्न की बहुतेरी समस्याओं का हल निकाल लिया है। हिन्दी को यह विरासत संस्कृत से मिली है। सन्धि और समास के नियमों से अनुशासित ऐसे हजारों शब्द हिन्दी में चलते हैं, जिनमें योजक चिह्न का प्रयोग नहीं होता। वे अपने-आपमें समस्त पद बन गये हैं; जैसे—
तत्पुरुष समास—
- राजमन्त्री, गंगाजल, शोकाकुल, शरणागत, पाकिटमार, आकाशवाणी, कर्मपटु, देशान्तर, जन्मान्तर, देवालय, लखपती, पंकज, रेलकुली।
- तत्पुरुष समास के नियम से अपरिचित रहने के कारण हिन्दी में निम्नलिखित शब्द योजक चिह्नों के साथ लिखे गये हैं—
तत्पुरुष समास | |||
अशुद्ध | शुद्ध | अशुद्ध | शुद्ध |
गंगा-प्राप्त | गंगाप्राप्त | पद-च्युत | पदच्युत |
मन-गढ़न्त | मनगढ़न्त | पन-डब्बा | पनडब्बा |
मन-माना | मन-माना | रसोई-घर | रसोईघर |
ईश्वर-दत्त | ईश्वरदत्त | आप-बीती | आपबीती |
पुत्र-शोक | पुत्रशोक | जल-मग्न | जलमग्न |
देश-निकाला | देशनिकाला | गंगा-जल | गंगाजल |
गुरु-भाई | गुरुभाई | डाक-घर | डाकघर |
काम-चोर | कामचोर | जन्म-रोगी | जन्मरोगी |
मुँह-तोड़ | मुँहतोड़ | राष्ट्र-भाषा | राष्ट्रभाषा |
गिरह-कट | गिरहकट | आनन्द-मग्न | आनन्दमग्न |
मद-माता | मदमाता | घुड़-दौड़ | घुड़दौड़ |
तिल-चट्टा | तिलचट्टा | दर्शन-मात्र | दर्शनमात्र |
कर्मधारय समास—
कर्मधारय समास | |||
अशुद्ध | शुद्ध | अशुद्ध | शुद्ध |
कमल-नयन | कमलनयन | कर-पल्लव | करपल्लव |
चन्द्र-मुख | चन्द्रमुख | विद्या-धन | विद्याधन |
चरण-कमल | चरणकमल | डाक-गाड़ी | डाकगाड़ी |
गोबर-गणेश | गोबरगणेश | भव-सागर | भवसागर |
रजत-कंकण | रजतकंकण | धर्म-शाला | धर्मशाला |
अव्ययीभाव समास—
अव्ययीभाव समास | |||
अशुद्ध | शुद्ध | अशुद्ध | शुद्ध |
दिन-रात | दिन-रात | पहले-पहल | पहलेपहल |
रात-भर | रातभर | रातो-रात | रातोरात |
यथा-स्थान | यथास्थान | उप-नगर | उपनगर |
मुँहा-मुँह | मुँहामुँह | यथा-शक्ति | यथाशक्ति |
एक रुपया-मात्र | एक रुपया मात्र | आज-कल | आजकल |
द्विगु समास—
द्विगु समास से बने सामासिक पदों में योजक चिह्न का प्रयोग नहीं होता है; जैसे—
- सप्तलोक, त्रिभुवन, पंचवटी, नवग्रह, सतसई, चवन्नी, चौमासा, सप्तवर्षीय।
द्वन्द्व समास—
इस समास से बने पदों में योजक चिह्न का प्रयोग बहुत अधिक होता है; जैसे—
- माता-पिता, भाई-बहन, राम-कृष्ण, शिव-पार्वती।
जिन शब्दों के अन्त में पूर्वक, पूर्ण, मय, युक्त, व्यापी, द्वारा, रूपी, गण, भर, मात्र, स्वरूप इत्यादि जोड़े जाएँ, वहाँ योजक चिह्न का प्रयोग नहीं होना चाहिए। उदाहरणार्थ—
- पूर्वक— आदरपूर्वक, ध्यानपूर्वक, श्रद्धापूर्वक, नम्रतापूर्वक
- द्वारा— गुरुद्वारा, परिषद् द्वारा
- पूर्ण— विनोदपूर्ण
- व्यापी— भारतव्यापी, देशव्यापी, विश्वव्यापी
- मय— आनंदमय, मंगलमय, शान्तिमय
- रूपी— कृष्णरूपी
- युक्त— योगयुक्त
- मात्र— मानवमात्र
- गण— तारागण
- स्वरूप— परिणामस्वरूप
- भर— दिनभर
विशेष्य और विशेषण के बीच योजक चिह्न का प्रयोग नहीं किया जाता है; जैसे—
विशेष्य और विशेषण | |||
अशुद्ध | शुद्ध | अशुद्ध | शुद्ध |
काशी-वासी | काशीवासी | अहिन्दी-भाषी | अहिन्दीभाषी |
सहेतुक-वाक्य | सहेतुक वाक्य | हिन्दी-फिल्म | हिन्दी फिल्म |
बाह्य-आडम्बर | बाह्य आडम्बर | सान्ध्य-गोष्ठी | सान्ध्य गोष्ठी |
मातृ-भक्ति | मातृभक्ति | आदर्श-मैत्री | आदर्शमैत्री |
मातृ-भाषा | मातृभाषा | हिन्दू-विवाह | हिन्दू विवाह |
विभिन्न-ऋतु | विभिन्न ऋतु | अनधिकार-चेष्टा | अनधिकार चेष्टा |
रसीली-कहानियाँ | रसीली कहानियाँ | शुभ-समाचार | शुभ समाचार |
कुछ लोग ‘नञ्’ समास से बने नकारात्मक पदों में योजक चिह्न लगाते हैं; जैसे—
- ना-खुश, अन-पढ़, अन-सुन, बे-बुनियाद, अन-चाहा, बे-मजा, बे-शुमार, अन-गिनत इत्यादि।
परन्तु ऐसा करना ठीक नहीं। ये शब्द या तो विदेशज हैं या देशज। यदि इन शब्दों में योजक चिह्न लगाते हैं तो ‘अ’ या ‘अन्’ से लगनेवाले तत्सम और तद्भवों के साथ भी ऐसा करना होगा; जैसे—
- अनन्त, अनाथ, अपवित्र, अनादर, अनादि, अछूत, अनजान इत्यादि।
हिन्दी भाषा में ये शब्द स्थिर हो चुके हैं। हाँ, उर्दू, फारसी और अरबी से आनेवाले कुछ शब्दों में उच्चारण की स्पष्टता के लिये हम योजक चिह्न का प्रयोग कर सकते हैं; जैसे—
- अंजुमन-ए-इस्लाम, आईन-ए-अकबरी, साल-ब-साल, रोज-ब-रोज, कदम-ब-कदम इत्यादि।
शब्दों के आरम्भ में लगनेवाले उपसर्गों को योजक चिह्न लगाकर पृथक करना ठीक नहीं है। पृथक करने की राय अँग्रेजी के अनुकरण पर दी जाती; जैसे—
अँग्रेजी | हिन्दी (अशुद्ध) | हिन्दी (शुद्ध) |
Vice-chancellor | उप-कुलपति | उपकुलपति |
Ex-soldier | भूतपूर्व-सैनिक | भूतपूर्व सैनिक |
Non-cooperation | अ-सहयोग | असहयोग |
Vice-Principal | उप-प्राचार्य | उपप्राचार्य |
Vice-President | उप-राष्ट्रपति | उपराष्ट्रपति |
Vice-Chairman | उप-सभापति | उपसभापति |
Four-footed | चौ-पाया | चौपाया |
आँग्ल भाषा के प्रभाव में पदनिर्माण का यह तरीका हिन्दी की प्रकृति से मेल नहीं खाता।
हिन्दी में उपसर्गों के साथ योजक चिह्न लगाने की प्रथा नहीं है; जैसे—
उपसर्ग | पद |
परा | पराकाष्ठा, पराक्रम, पराङ्मुख, पराजय, पराभव, परावर्तन |
अनु | अनुकंपा, अनुक्रम, अनुकथन, अनुसूची, अनुसरण |
उप | उपनिषद्, उपग्रह, उपकार, उपाध्यक्ष |
अति | अतिक्रमण, अतिचार, अतिकाल |
मनु | मनुज |
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- तुल्यता सूचक चिह्न— (=)
- पाद टिप्पणी चिह्न / तारक चिह्न — (*)