पर्यायवाची शब्द

भूमिका

“ऐसे शब्द जिनके अर्थ समान होते हैं उन्हें ‘पर्यायवाची शब्द’ कहते हैं। पर्यायवाची शब्द को ‘प्रतिशब्द’, ‘समानार्थक’ और ‘तुल्यार्थक’ शब्द भी कहते हैं।” उदाहरणार्थ आँख शब्द का समानार्थक शब्द चक्षु, नेत्र, नयन और लोचन है। पानी का समानार्थक शब्द जल और वारि है।

किसी भी भाव को व्यक्त करने के लिये एक ही भाव व व्यक्ति के लिये संदर्भ और प्रसंग के अनुसार भिन्न-भिन्न शब्दों का प्रयोग किया जाता है जिनके अर्थ समान हो; उदाहरणार्थ श्रीकृष्ण के पर्याय शब्द हैं – गिरिधर, मुरारी, त्रिपुरारी, दीनबन्धु, चक्रपाणि, मुरलीधर इत्यादि। परन्तु इनके प्रयोग में संदर्भ व प्रसंग का ध्यान रखना आवश्यक है। इस संदर्भ में आचार्य शुक्ल का विचार उद्धृत करना समीचीन है —

ऐसे शब्दों को चुनते समय इस बात का ध्यान रखना चाहिए कि वे प्रकरण विरुद्ध या अवसर के प्रतिकूल न हों। जैसे, यदि कोई मनुष्य किसी दुर्धर्ष अत्याचारी के हाथ से छुटकारा पाना चाहता हो तो उसके लिए “हे गोपिकारमण ! हे वृन्दावन-बिहारी !” आदि कहकर कृष्ण को पुकारने की अपेक्षा ‘हे मुरारि ! हे कंसनिकन्दन !” आदि संबोधनों से पुकारना अधिक उपयुक्त है; क्योंकि श्रीकृष्ण के द्वारा कंस आदि दुष्टों का मारा जाना देखकर उसे अपनी रक्षा की आशा होती है, न कि उनका वृन्दावन में गोपियों के साथ विहार करना देखकर । इसी तरह किसी आपत्ति से उद्धार पाने के लिए कृष्ण को “मुरलीधर” कहकर पुकारने की अपेक्षा “गिरधर” कहना अधिक अर्थसंगत है। — कविता क्या है? चिन्तामणि : आचार्य रामचन्द्र शुक्ल।

पर्यायवाची शब्द के प्रकार

पर्यायवाची शब्द तीन प्रकार के हैं —

  • पूर्ण पर्याय : वाक्य में यदि एक शब्द के स्थान पर दूसरा रखा जा सके और अर्थ में कोई अंतर न पड़ता हो, तो यह उसका पूर्ण पर्याय है। जैसे — जलज, वारिज; तकलीफ, कष्ट; ईश्वर, परमात्मा, परमेश्वर; पानी, जल।
  • पूर्णापूर्ण पर्याय : जो एक प्रसंग में तो पूर्ण पर्याय हो, किंतु दूसरे प्रसंग में समानार्थक न रहे पाये। जैसे — कपड़े टाँगना के स्थान पर कपड़े लटकाना कह दें तो वही अर्थ प्राप्त होता है, परंतु ‘वह मुँह लटकाये बैठा है’ के स्थान पर ‘वह मुँह टाँगे बैठा है’ नहीं कह सकते। इसीलिये विद्वानों का कहना है कि कोई दो शब्द पूर्ण पर्याय नहीं हो सकते।
  • अपूर्ण पर्याय : कोई भी व्यक्ति शब्दों के अर्थ की छाया बदल-बदलकर अपने-अपने ढंग से प्रयोग करता है और विषय की व्यापकता के परिप्रेक्ष्य में उसी शब्द का प्रयोग नये अर्थ में होने लगता है। यह अपूर्ण पर्याय कहलाता है। कुछ शब्दों के सूक्ष्म भेद उसके मूल अर्थ में विद्यमान होते हैं किन्तु अपनी आवश्यकतानुसार उन्हें उसका पर्याय माना लिया जाता है किन्तु ऐसा नहीं है। दोनों के अर्थ तथा भाव अलग-अलग होते हैं। ऐसी स्थिति से बचने के लिए सदैव उचित शब्दों का ही प्रयोग करना चाहिए। उदाहरणार्थ संस्कृत शब्द ‘गर्भिणी’ से हिन्दी शब्द (तद्भव) ‘गाभिन’ विकसित हुआ है। इसलिये इन दोनों शब्दों का अर्थ एक ही है परन्तु उचित स्थान पर इनका प्रयोग न हो पाने के कारण अर्थ का अनर्थ हो जाता है। ‘गाभिन’ शब्द का प्रयोग सदैव पशु के लिये किया जाता है जबकि ‘गर्भिणी’ शब्द का प्रयोग स्त्री के लिये किया जाता है। एक अन्य उदाहरण लेते हैं; जैसे – अपराध और पाप। विधि का उल्लंघन अपराध होता है जबकि नैतिकता का उल्लंघन पाप होता है।

यहाँ एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि बहुत सारे ऐसे शब्द होते हैं जिनके अनेक अर्थ हैं; उदाहरणार्थ :-

  • सारंग – एक अनेकार्थक शब्द है। बाज, कोयल, हंस, मोर, पपीहा, भ्रमर, खंजन, चिड़िया, सूर्य, चन्द्रमा, ग्रह, नक्षत्र, परमेश्वर, श्रीकृष्ण, विष्णु, शिवजी, कामदेव, हाथी, घोड़ा, मृग, मेंढक, सर्प, सिंह, छत्र, छाता, शंख, कमल, चंदन, पुष्प, फूल, स्वर्ण, गहना, पृथ्वी, केश, कर्पूर, विष्णु का धनुष, समुद्र, वायु, तालाब, पानी, वस्त्र, दीपक, वाण, छवि, कांति, सुन्दरता, शोभा, छटा, स्त्री, रात, रात्रि, दिन, तलवार, बादल, मेघ, हाथ, आकाश, नभ, सारंगी बाजा, बिजली, इत्यादि। इसीलिये एक ही शब्द कई शब्दों का पर्याय हो सकता है।

पर्यायवाची शब्द संग्रह

पर्यायवाची शब्द — ‘स्वर’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘क’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘च’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘ट’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘त’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘प’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘अन्तःस्थ’ वर्ग

पर्यायवाची शब्द — ‘ऊष्म’ वर्ग

विशेष्य और विशेषण

विलोम या विपरीतार्थक शब्द

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तत्सम एवं तद्भव शब्द

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